आदरणीय प्रधानमंत्री जी,
यह तो हम सबको बहुत अच्छे से पता है कि तुष्टिकरण विशुद्ध रूप से एक राजनैतिक उपकरण है। जहाँ भी तुष्टिकरण है, वहाँ वास्तविक विकास असंभव है। क्यूँकि तुष्टिकरण का अर्थ ही है – छलावा या दिखावा। जिस वर्ग का तुष्टिकरण किया जाता है, उसे तो कोई वास्तविक लाभ नहीं ही होता है, साथ-ही-साथ उस वर्ग को छोड़ अन्य सभी वर्गों के साथ अन्याय अवश्य होता है। उदाहरण के लिए, स्वतंत्रता के बाद से ही कांग्रेस ने लगातार अल्पसंख्यक-तुष्टिकरण की राजनीति की। इस तुष्टिकरण से यदि अल्पसंख्यकों को वास्तविक लाभ पहुँचता तो अल्पसंख्यक समुदाय के साथ-साथ देश भी कितना प्रगति कर चुका होता। अल्पसंख्यकों के शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार में कितनी सुधार हुई है, यह सर्वविदित है। सैकड़ों करोड़ खर्च करके हज भवन बनवाने से और धर्म के नाम पर आतंकियों का बचाव करने से अल्पसंख्यकों को ऐसा भले लग सकता है कि यह उनके हित के लिए किया गया कार्य है, लेकिन असल में यह तो छलावा है जिस से उनको कोई वास्तविक लाभ नहीं होने वाला।
स्वतंत्रता के बाद से ही इस देश में ऐसी ही एक और तुष्टिकरण की राजनीति की जा रही है, दलित-पिछड़ों का तुष्टिकरण। आरक्षण के नाम पर यह दिखावा किया जा रहा है कि इस से दलित-पिछड़ों का विकास होगा, लेकिन वास्तविकता क्या है? कुछ गिने-चुने दलित-पिछड़े पीढ़ी-दर-पीढ़ी उस आरक्षण का लाभ लिए जा रहे हैं और जिनको वास्तव में आरक्षण की आवश्यकता है, उनको आज स्वतंत्रता के 75 वर्षों के बाद भी आरक्षण के विषय में ठीक से कुछ पता तक नहीं। ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि हम आरक्षण के विरोधी हैं। हम आरक्षण का प्रबल समर्थन करते हैं। लेकिन आरक्षण किनको मिले और कहाँ मिले, यह सुनिश्चित करना चाहिए।
- आरक्षण किसे मिले? एक निर्धन श्रमिक का बच्चा 85 अंक लाकर भी IIT में चयनित नहीं होता है और उसी परीक्षा में एक करोड़पति चिकित्सक का बच्चा 40 अंक लाकर IIT में प्रवेश पा लेता है। केवल इसलिए क्यूँकि निर्धन श्रमिक सामान्य वर्ग से आता है और करोड़पति चिकित्सक महाशय दलित-पिछड़े वर्ग से। सरकार योग्य दलित-पिछड़ों तक आरक्षण पहुँचाने में पूर्णतः विफल रही है और सरकार की इस विफलता और अक्षमता का दुष्परिणाम दलित-पिछड़ों सहित सामान्य वर्ग के लोगों तक को भुगतना पड़ रहा है।
- आरक्षण कहाँ मिले? आरक्षण का लाभ लेकर बिना प्रतिभा के लोग शिक्षक और चिकित्सक तो बन जाते हैं, लेकिन अंततः इसकी हानि किसको होती है? इस प्रकार से आरक्षण से आए शिक्षकों से हमारे गाँव के सोनेलाल, बिजली और जगदेव जैसे लोगों के ही बच्चे पढ़ते हैं, जो वास्तव में दलित-पिछड़े हैं। और इनके साथ पढ़ते हैं सामान्य वर्ग के निर्धन बच्चे। आरक्षण से आए चिकित्सकों से यही दलित-पिछड़े और सामान्य वर्ग के निर्धन लोग चिकित्सा करवाते हैं। क्या हम कल्पना भी कर सकते हैं कि आरक्षण से आए शिक्षकों एवं चिकित्सकों से हमारे देश के माननीय राष्ट्रपति और उनका परिवार सेवा लेते हैं, जो एक दलित समाज से आते हैं। दलितों के भाग्य-विधाता माने जाने वाले स्वर्गीय रामविलास पासवान का परिवार हो या बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम माँझी का परिवार, क्या येलोग लेते होंगे आरक्षण से आए लोगों की सेवाएँ? तो आरक्षण का पूरा दुष्परिणाम तो अंततः उन्हीं दलित-पिछड़ों को भुगतना पड़ रहा है ना जिनके लिए यह आरक्षण बना था। इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि यह तय किया जाए कि आरक्षण किन क्षेत्रों (sectors) में दिया जाए और किन पदों (designations) पर दिया जाए। इसरो (ISRO) में आरक्षण देकर हम अंतरिक्ष तक नहीं पहुँच सकते। उसी प्रकार आरक्षण से आए शिक्षक देश का भविष्य नहीं सुधार सकते। और बच्चों, विशेष-कर दलित-पिछड़े एवं निर्धन, को गुणवत्ता-पूर्ण शिक्षा मिले, यह सरकार का परम-कर्तव्य भी है और दायित्व भी।
अब यक्ष प्रश्न यह है कि समाधान क्या है? तो समाधान बहुत ही सामान्य-सा है: “सबके लिए एक-समान प्राथमिक शिक्षा का अवसर (opportunity of equal primary education to all)”। यह कठिन तो है, लेकिन असंभव नहीं। सरकार यह प्रावधान करे कि देश के सभी बच्चों को बिना किसी भेद-भाव के 12वीं तक की समान शिक्षा मिले। दलित-पिछड़े और निर्धन बच्चे भी DAV, DPS, G. D. Goenka, Birla जैसे विद्यालयों में पढ़ सकें, इसकी व्यवस्था की जाए। इसमें जितना आरक्षण देना है, जितना खर्च करना है, सरकार करे। किसी को आपत्ति नहीं होगी। 12वीं के बाद उच्च शिक्षा में और रोज़गार में खुली प्रतियोगिता हो। 12वीं के बाद कोई आरक्षण नहीं। उसके बाद कोई कारण होगा भी नहीं, क्यूँकि सभी बच्चे समान शिक्षा लेकर आए हैं। यह सही अर्थों में दलित-पिछड़ों के विकास के लिए उठाया हुआ ठोस कदम होगा जिस से वास्तव में आरक्षण सफल हो सकेगा और सामान्य वर्ग के लोगों में भी क्षोभ नहीं होगा। अभी तक कुछ मुट्ठी भर लोगों ने आरक्षण को अपना निजी अधिकार बनाया हुआ है। अन्यथा यह कैसे हो सकता है कि स्वतंत्रता के 75 वर्षों के बाद भी बिहार की राजधानी पटना से मात्र 45 किमी दूर मेरे गाँव (चकदरिया, वैशाली) के हरिजन-टोला से आज तक एक भी व्यक्ति अधिकारी नहीं बना हो। अधिकारी तो छोड़िए, चपरासी (peon) की नौकरी भी नहीं मिली है। आज तक सभी अन्य राज्यों में जाकर श्रमिक और सुरक्षाकर्मी का काम करते हैं और नई पीढ़ी भी उसी रास्ते पर अग्रसर है। किसी को ये तक नहीं पता है कि उनके बच्चों के लिए नवोदय विद्यालय नाम के प्रतिष्ठित विद्यालय में आरक्षण है।
आदरणीय मोदी जी, बस एक कठोर कदम की आवश्यकता है......... और आपसे ही आशा है।
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मनीष कुमार
वैशाली, बिहार
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