May your souls rest in peace and your parents and brother get the courage to face the situation. Although no one can even imagine their sorrow, but still........ :(
If still we (the whole society) don't do anything, then the day is not very far when I will find myself (or any of my family members) among the victims. And that day, I won't have any right to be sad or repent, because I'll be responsible for that in one or another form.
Monday, February 15, 2010
Wednesday, February 10, 2010
धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीयता
धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीयता, आज के परिपेक्ष्य में ये दोनों शब्द एक-सामान दिखाई देते हैं. किन्तु वास्तव में दोनों शब्दों के अर्थ अत्यंत ही भिन्न हैं. वैसे तो धर्मनिरपेक्षता के ही अर्थ को लेकर समाज में अत्यंत भ्रम की स्थिति है. धर्मनिरपेक्षता का मतलब क्या होना चाहिए: सभी धर्मों का आदर करना या किसी भी धर्म को नहीं मानना? सबके अपने-अपने मत हो सकते हैं. जहां तक मुझे लगता है, अपने धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा एवं विश्वास तथा दूसरे धर्मों का आदर ही सही मायने में धर्मनिरपेक्षता है.
अब अगला शब्द आता है: राष्ट्रीयता. ज़मीन के उस टुकड़े को हम राष्ट्र नहीं कहते हैं जिसमें रहते हैं. राष्ट्र एक बहुत ही व्यापक शब्द है: राष्ट्र के अंतर्गत उस भूभाग (जिसको हम भारत माता कहते हैं) के साथ-साथ वहाँ की सभ्यता-संस्कृति, गौरवपूर्ण इतिहास इत्यादि भी आता है. आज-कल की गंदी राजनीति ने इन दोनों शब्दों (राष्ट्रीयता और धर्मनिरपेक्षता) को इस तरह से जोड़ दिया गया है कि लोग अब दोनों के बीच का अंतर ही नहीं समझ पाते हैं. धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हमारे राष्ट्रीयता को ही बदलने की कोशिश की जा रही है. उदाहरण के लिए: संसद में “सरस्वती वन्दना” पर आपत्ति, राजधानी/शताब्दी एक्सप्रेस में “भक्ति-गीतों” के बजने पर आपत्ति, “वन्दे-मातरम” पर आपत्ति इत्यादि-इत्यादि. यहाँ तक कि राष्ट्रीय चिन्हों (राष्ट्रीय फूल: कमल, राष्ट्रीय पक्षी: मोर) पर भी आपत्ति जताई जा रही है. अभी हाल में ही यह समाचार आया कि रेल-राज्य मंत्री ई. अहमद को नए रेलों की भारतीय परम्परा के अनुसार पूजा-अर्चना करना और उन पर फूल-माला लगाने एवं विश्वकर्मा-पूजा करने पर भी आपत्ति है. उन्होंने रेलवे को ऐसा करने से मना कर दिया है. ऐसे असंख्य उदाहरण आज हमारे सामने हैं, ये अलग बात है कि हम जाने-अनजाने में इन बातों को नज़रंदाज़ कर देते हैं.
अब विचार करने योग्य बात है कि क्या सही में ये सब धर्मनिरपेक्षता है या धर्मनिरपेक्षता की आड़ में ये ओछी राजनीति करने वाले राजनीतिज्ञ हमारी राष्ट्रीयता को मिटाने कि कोशिश कर रहे हैं? हज़ारों वर्ष पुरानी भारतीय सभ्यता को मिटाने का षड्यंत्र चल रहा है. भले ही हमारी पूजा-पद्धति कुछ भी हो, हम सनातन धर्म को मानते हों, इस्लाम के अनुयायी हों या ईसा-मसीह की पूजा करते हों, हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते हैं कि दुनिया में भारत-वर्ष की पहचान भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, चाणक्य, चन्द्रगुप्त, छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, तक्षशिला, विक्रमशिला, नालंदा, गीता, पुराण, वेद-उपनिषद् इत्यादि से है, ना कि मोहम्मद पैगम्बर, ईसा-मसीह, अकबर, बाबर, हुमायूं, औरंगजेब, बाईबल, क़ुरान, इत्यादि से है. भारतीय-दर्शन (Indian Philosophy) का मतलब भारत का वह गौरवपूर्ण इतिहास है जिसमें रामायण, महाभारत, पुराण, वेद-उपनिषद, भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण, चरक, भास्कराचार्य, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, समुद्रगुप्त, चणक, चाणक्य, पाणिनी, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरबिंद, इत्यादि के बारे में बताया जाता हो, और इस बात को कोई भी झुठला नहीं सकता. भले ही हम कितना भी “धर्मनिरपेक्षता” का राग अलाप लें, “भारतीय सभ्यता-संस्कृति” का मतलब नहीं बदल सकते हैं. यही भारतवर्ष की पहचान है, यही भारतवर्ष की राष्ट्रीयता है. हम इन “छद्म धर्मनिरपेक्ष राजनीतिज्ञों” के छलावे में आकर अपनी पहचान खो रहे हैं और अपनी पहचान, अपनी राष्ट्रीयता को खोकर हम ज्यादा दिनों तक नहीं रह सकते हैं.
इकबाल का वर्षों पुराना लिखा शेर आज के परिपेक्ष्य में भी उतना ही सार्थक है:
वतन की फिक्र कर नादाँ, मुसीबत आने वाली है,
तेरी बरबादियों के मशवरे हैं आसमानों में ।
नहीं समझोगे तो मिट जाओगे हिन्दुस्तां वालों,
तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में ॥
आज आवश्यकता है हम सभी भारतीयों (वो सभी लोग जो इस पवित्र भूमि को भारत-माता मानते हैं) को एक साथ खड़े होकर इन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिज्ञों को सबक सीखाने की, अपनी खोती जा रही राष्ट्रीयता को पुनः प्रतिष्ठित करने की, अपने इस भारत-माता को पुनः परम-वैभव पर पंहुचाने की और भारतवर्ष को फिर से विश्व-गुरु के रूप में स्थापित करने की. आइए, हम सभी भारत माँ के संतान यह प्रण लें:
तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें ना रहें ॥
!! भारत माता की जय !!
अब अगला शब्द आता है: राष्ट्रीयता. ज़मीन के उस टुकड़े को हम राष्ट्र नहीं कहते हैं जिसमें रहते हैं. राष्ट्र एक बहुत ही व्यापक शब्द है: राष्ट्र के अंतर्गत उस भूभाग (जिसको हम भारत माता कहते हैं) के साथ-साथ वहाँ की सभ्यता-संस्कृति, गौरवपूर्ण इतिहास इत्यादि भी आता है. आज-कल की गंदी राजनीति ने इन दोनों शब्दों (राष्ट्रीयता और धर्मनिरपेक्षता) को इस तरह से जोड़ दिया गया है कि लोग अब दोनों के बीच का अंतर ही नहीं समझ पाते हैं. धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हमारे राष्ट्रीयता को ही बदलने की कोशिश की जा रही है. उदाहरण के लिए: संसद में “सरस्वती वन्दना” पर आपत्ति, राजधानी/शताब्दी एक्सप्रेस में “भक्ति-गीतों” के बजने पर आपत्ति, “वन्दे-मातरम” पर आपत्ति इत्यादि-इत्यादि. यहाँ तक कि राष्ट्रीय चिन्हों (राष्ट्रीय फूल: कमल, राष्ट्रीय पक्षी: मोर) पर भी आपत्ति जताई जा रही है. अभी हाल में ही यह समाचार आया कि रेल-राज्य मंत्री ई. अहमद को नए रेलों की भारतीय परम्परा के अनुसार पूजा-अर्चना करना और उन पर फूल-माला लगाने एवं विश्वकर्मा-पूजा करने पर भी आपत्ति है. उन्होंने रेलवे को ऐसा करने से मना कर दिया है. ऐसे असंख्य उदाहरण आज हमारे सामने हैं, ये अलग बात है कि हम जाने-अनजाने में इन बातों को नज़रंदाज़ कर देते हैं.
अब विचार करने योग्य बात है कि क्या सही में ये सब धर्मनिरपेक्षता है या धर्मनिरपेक्षता की आड़ में ये ओछी राजनीति करने वाले राजनीतिज्ञ हमारी राष्ट्रीयता को मिटाने कि कोशिश कर रहे हैं? हज़ारों वर्ष पुरानी भारतीय सभ्यता को मिटाने का षड्यंत्र चल रहा है. भले ही हमारी पूजा-पद्धति कुछ भी हो, हम सनातन धर्म को मानते हों, इस्लाम के अनुयायी हों या ईसा-मसीह की पूजा करते हों, हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते हैं कि दुनिया में भारत-वर्ष की पहचान भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, चाणक्य, चन्द्रगुप्त, छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, तक्षशिला, विक्रमशिला, नालंदा, गीता, पुराण, वेद-उपनिषद् इत्यादि से है, ना कि मोहम्मद पैगम्बर, ईसा-मसीह, अकबर, बाबर, हुमायूं, औरंगजेब, बाईबल, क़ुरान, इत्यादि से है. भारतीय-दर्शन (Indian Philosophy) का मतलब भारत का वह गौरवपूर्ण इतिहास है जिसमें रामायण, महाभारत, पुराण, वेद-उपनिषद, भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण, चरक, भास्कराचार्य, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, समुद्रगुप्त, चणक, चाणक्य, पाणिनी, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरबिंद, इत्यादि के बारे में बताया जाता हो, और इस बात को कोई भी झुठला नहीं सकता. भले ही हम कितना भी “धर्मनिरपेक्षता” का राग अलाप लें, “भारतीय सभ्यता-संस्कृति” का मतलब नहीं बदल सकते हैं. यही भारतवर्ष की पहचान है, यही भारतवर्ष की राष्ट्रीयता है. हम इन “छद्म धर्मनिरपेक्ष राजनीतिज्ञों” के छलावे में आकर अपनी पहचान खो रहे हैं और अपनी पहचान, अपनी राष्ट्रीयता को खोकर हम ज्यादा दिनों तक नहीं रह सकते हैं.
इकबाल का वर्षों पुराना लिखा शेर आज के परिपेक्ष्य में भी उतना ही सार्थक है:
वतन की फिक्र कर नादाँ, मुसीबत आने वाली है,
तेरी बरबादियों के मशवरे हैं आसमानों में ।
नहीं समझोगे तो मिट जाओगे हिन्दुस्तां वालों,
तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में ॥
आज आवश्यकता है हम सभी भारतीयों (वो सभी लोग जो इस पवित्र भूमि को भारत-माता मानते हैं) को एक साथ खड़े होकर इन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिज्ञों को सबक सीखाने की, अपनी खोती जा रही राष्ट्रीयता को पुनः प्रतिष्ठित करने की, अपने इस भारत-माता को पुनः परम-वैभव पर पंहुचाने की और भारतवर्ष को फिर से विश्व-गुरु के रूप में स्थापित करने की. आइए, हम सभी भारत माँ के संतान यह प्रण लें:
तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें ना रहें ॥
!! भारत माता की जय !!
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