Friday, February 25, 2022

आरक्षण पर प्रधानमंत्री के नाम खुला पत्र

आदरणीय प्रधानमंत्री जी,
यह तो हम सबको बहुत अच्छे से पता है कि तुष्टिकरण विशुद्ध रूप से एक राजनैतिक उपकरण है। जहाँ भी तुष्टिकरण है, वहाँ वास्तविक विकास असंभव है। क्यूँकि तुष्टिकरण का अर्थ ही है – छलावा या दिखावा। जिस वर्ग का तुष्टिकरण किया जाता है, उसे तो कोई वास्तविक लाभ नहीं ही होता है, साथ-ही-साथ उस वर्ग को छोड़ अन्य सभी वर्गों के साथ अन्याय अवश्य होता है। उदाहरण के लिए, स्वतंत्रता के बाद से ही कांग्रेस ने लगातार अल्पसंख्यक-तुष्टिकरण की राजनीति की। इस तुष्टिकरण से यदि अल्पसंख्यकों को वास्तविक लाभ पहुँचता तो अल्पसंख्यक समुदाय के साथ-साथ देश भी कितना प्रगति कर चुका होता। अल्पसंख्यकों के शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार में कितनी सुधार हुई है, यह सर्वविदित है। सैकड़ों करोड़ खर्च करके हज भवन बनवाने से और धर्म के नाम पर आतंकियों का बचाव करने से अल्पसंख्यकों को ऐसा भले लग सकता है कि यह उनके हित के लिए किया गया कार्य है, लेकिन असल में यह तो छलावा है जिस से उनको कोई वास्तविक लाभ नहीं होने वाला।

स्वतंत्रता के बाद से ही इस देश में ऐसी ही एक और तुष्टिकरण की राजनीति की जा रही है, दलित-पिछड़ों का तुष्टिकरण। आरक्षण के नाम पर यह दिखावा किया जा रहा है कि इस से दलित-पिछड़ों का विकास होगा, लेकिन वास्तविकता क्या है? कुछ गिने-चुने दलित-पिछड़े पीढ़ी-दर-पीढ़ी उस आरक्षण का लाभ लिए जा रहे हैं और जिनको वास्तव में आरक्षण की आवश्यकता है, उनको आज स्वतंत्रता के 75 वर्षों के बाद भी आरक्षण के विषय में ठीक से कुछ पता तक नहीं। ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि हम आरक्षण के विरोधी हैं। हम आरक्षण का प्रबल समर्थन करते हैं। लेकिन आरक्षण किनको मिले और कहाँ मिले, यह सुनिश्चित करना चाहिए।

- आरक्षण किसे मिले? एक निर्धन श्रमिक का बच्चा 85 अंक लाकर भी IIT में चयनित नहीं होता है और उसी परीक्षा में एक करोड़पति चिकित्सक का बच्चा 40 अंक लाकर IIT में प्रवेश पा लेता है। केवल इसलिए क्यूँकि निर्धन श्रमिक सामान्य वर्ग से आता है और करोड़पति चिकित्सक महाशय दलित-पिछड़े वर्ग से। सरकार योग्य दलित-पिछड़ों तक आरक्षण पहुँचाने में पूर्णतः विफल रही है और सरकार की इस विफलता और अक्षमता का दुष्परिणाम दलित-पिछड़ों सहित सामान्य वर्ग के लोगों तक को भुगतना पड़ रहा है।

- आरक्षण कहाँ मिले? आरक्षण का लाभ लेकर बिना प्रतिभा के लोग शिक्षक और चिकित्सक तो बन जाते हैं, लेकिन अंततः इसकी हानि किसको होती है? इस प्रकार से आरक्षण से आए शिक्षकों से हमारे गाँव के सोनेलाल, बिजली और जगदेव जैसे लोगों के ही बच्चे पढ़ते हैं, जो वास्तव में दलित-पिछड़े हैं। और इनके साथ पढ़ते हैं सामान्य वर्ग के निर्धन बच्चे। आरक्षण से आए चिकित्सकों से यही दलित-पिछड़े और सामान्य वर्ग के निर्धन लोग चिकित्सा करवाते हैं। क्या हम कल्पना भी कर सकते हैं कि आरक्षण से आए शिक्षकों एवं चिकित्सकों से हमारे देश के माननीय राष्ट्रपति और उनका परिवार सेवा लेते हैं, जो एक दलित समाज से आते हैं। दलितों के भाग्य-विधाता माने जाने वाले स्वर्गीय रामविलास पासवान का परिवार हो या बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम माँझी का परिवार, क्या येलोग लेते होंगे आरक्षण से आए लोगों की सेवाएँ? तो आरक्षण का पूरा दुष्परिणाम तो अंततः उन्हीं दलित-पिछड़ों को भुगतना पड़ रहा है ना जिनके लिए यह आरक्षण बना था। इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि यह तय किया जाए कि आरक्षण किन क्षेत्रों (sectors) में दिया जाए और किन पदों (designations) पर दिया जाए। इसरो (ISRO) में आरक्षण देकर हम अंतरिक्ष तक नहीं पहुँच सकते। उसी प्रकार आरक्षण से आए शिक्षक देश का भविष्य नहीं सुधार सकते। और बच्चों, विशेष-कर दलित-पिछड़े एवं निर्धन, को गुणवत्ता-पूर्ण शिक्षा मिले, यह सरकार का परम-कर्तव्य भी है और दायित्व भी।

अब यक्ष प्रश्न यह है कि समाधान क्या है? तो समाधान बहुत ही सामान्य-सा है: “सबके लिए एक-समान प्राथमिक शिक्षा का अवसर (opportunity of equal primary education to all)”। यह कठिन तो है, लेकिन असंभव नहीं। सरकार यह प्रावधान करे कि देश के सभी बच्चों को बिना किसी भेद-भाव के 12वीं तक की समान शिक्षा मिले। दलित-पिछड़े और निर्धन बच्चे भी DAV, DPS, G. D. Goenka, Birla जैसे विद्यालयों में पढ़ सकें, इसकी व्यवस्था की जाए। इसमें जितना आरक्षण देना है, जितना खर्च करना है, सरकार करे। किसी को आपत्ति नहीं होगी। 12वीं के बाद उच्च शिक्षा में और रोज़गार में खुली प्रतियोगिता हो। 12वीं के बाद कोई आरक्षण नहीं। उसके बाद कोई कारण होगा भी नहीं, क्यूँकि सभी बच्चे समान शिक्षा लेकर आए हैं। यह सही अर्थों में दलित-पिछड़ों के विकास के लिए उठाया हुआ ठोस कदम होगा जिस से वास्तव में आरक्षण सफल हो सकेगा और सामान्य वर्ग के लोगों में भी क्षोभ नहीं होगा। अभी तक कुछ मुट्ठी भर लोगों ने आरक्षण को अपना निजी अधिकार बनाया हुआ है। अन्यथा यह कैसे हो सकता है कि स्वतंत्रता के 75 वर्षों के बाद भी बिहार की राजधानी पटना से मात्र 45 किमी दूर मेरे गाँव (चकदरिया, वैशाली) के हरिजन-टोला से आज तक एक भी व्यक्ति अधिकारी नहीं बना हो। अधिकारी तो छोड़िए, चपरासी (peon) की नौकरी भी नहीं मिली है। आज तक सभी अन्य राज्यों में जाकर श्रमिक और सुरक्षाकर्मी का काम करते हैं और नई पीढ़ी भी उसी रास्ते पर अग्रसर है। किसी को ये तक नहीं पता है कि उनके बच्चों के लिए नवोदय विद्यालय नाम के प्रतिष्ठित विद्यालय में आरक्षण है।
आदरणीय मोदी जी, बस एक कठोर कदम की आवश्यकता है......... और आपसे ही आशा है।
…….
मनीष कुमार
वैशाली, बिहार

References:
 


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Monday, February 15, 2010

Pune Blast (R.I.P. Ankik, Anindyee and others)

May your souls rest in peace and your parents and brother get the courage to face the situation. Although no one can even imagine their sorrow, but still........ :(
If still we (the whole society) don't do anything, then the day is not very far when I will find myself (or any of my family members) among the victims. And that day, I won't have any right to be sad or repent, because I'll be responsible for that in one or another form.

Wednesday, February 10, 2010

धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीयता

धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीयता, आज के परिपेक्ष्य में ये दोनों शब्द एक-सामान दिखाई देते हैं. किन्तु वास्तव में दोनों शब्दों के अर्थ अत्यंत ही भिन्न हैं. वैसे तो धर्मनिरपेक्षता के ही अर्थ को लेकर समाज में अत्यंत भ्रम की स्थिति है. धर्मनिरपेक्षता का मतलब क्या होना चाहिए: सभी धर्मों का आदर करना या किसी भी धर्म को नहीं मानना? सबके अपने-अपने मत हो सकते हैं. जहां तक मुझे लगता है, अपने धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा एवं विश्वास तथा दूसरे धर्मों का आदर ही सही मायने में धर्मनिरपेक्षता है.

अब अगला शब्द आता है: राष्ट्रीयता. ज़मीन के उस टुकड़े को हम राष्ट्र नहीं कहते हैं जिसमें रहते हैं. राष्ट्र एक बहुत ही व्यापक शब्द है: राष्ट्र के अंतर्गत उस भूभाग (जिसको हम भारत माता कहते हैं) के साथ-साथ वहाँ की सभ्यता-संस्कृति, गौरवपूर्ण इतिहास इत्यादि भी आता है. आज-कल की गंदी राजनीति ने इन दोनों शब्दों (राष्ट्रीयता और धर्मनिरपेक्षता) को इस तरह से जोड़ दिया गया है कि लोग अब दोनों के बीच का अंतर ही नहीं समझ पाते हैं. धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हमारे राष्ट्रीयता को ही बदलने की कोशिश की जा रही है. उदाहरण के लिए: संसद में “सरस्वती वन्दना” पर आपत्ति, राजधानी/शताब्दी एक्सप्रेस में “भक्ति-गीतों” के बजने पर आपत्ति, “वन्दे-मातरम” पर आपत्ति इत्यादि-इत्यादि. यहाँ तक कि राष्ट्रीय चिन्हों (राष्ट्रीय फूल: कमल, राष्ट्रीय पक्षी: मोर) पर भी आपत्ति जताई जा रही है. अभी हाल में ही यह समाचार आया कि रेल-राज्य मंत्री ई. अहमद को नए रेलों की भारतीय परम्परा के अनुसार पूजा-अर्चना करना और उन पर फूल-माला लगाने एवं विश्वकर्मा-पूजा करने पर भी आपत्ति है. उन्होंने रेलवे को ऐसा करने से मना कर दिया है. ऐसे असंख्य उदाहरण आज हमारे सामने हैं, ये अलग बात है कि हम जाने-अनजाने में इन बातों को नज़रंदाज़ कर देते हैं.

अब विचार करने योग्य बात है कि क्या सही में ये सब धर्मनिरपेक्षता है या धर्मनिरपेक्षता की आड़ में ये ओछी राजनीति करने वाले राजनीतिज्ञ हमारी राष्ट्रीयता को मिटाने कि कोशिश कर रहे हैं? हज़ारों वर्ष पुरानी भारतीय सभ्यता को मिटाने का षड्यंत्र चल रहा है. भले ही हमारी पूजा-पद्धति कुछ भी हो, हम सनातन धर्म को मानते हों, इस्लाम के अनुयायी हों या ईसा-मसीह की पूजा करते हों, हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते हैं कि दुनिया में भारत-वर्ष की पहचान भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, चाणक्य, चन्द्रगुप्त, छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, तक्षशिला, विक्रमशिला, नालंदा, गीता, पुराण, वेद-उपनिषद् इत्यादि से है, ना कि मोहम्मद पैगम्बर, ईसा-मसीह, अकबर, बाबर, हुमायूं, औरंगजेब, बाईबल, क़ुरान, इत्यादि से है. भारतीय-दर्शन (Indian Philosophy) का मतलब भारत का वह गौरवपूर्ण इतिहास है जिसमें रामायण, महाभारत, पुराण, वेद-उपनिषद, भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण, चरक, भास्कराचार्य, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, समुद्रगुप्त, चणक, चाणक्य, पाणिनी, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरबिंद, इत्यादि के बारे में बताया जाता हो, और इस बात को कोई भी झुठला नहीं सकता. भले ही हम कितना भी “धर्मनिरपेक्षता” का राग अलाप लें, “भारतीय सभ्यता-संस्कृति” का मतलब नहीं बदल सकते हैं. यही भारतवर्ष की पहचान है, यही भारतवर्ष की राष्ट्रीयता है. हम इन “छद्म धर्मनिरपेक्ष राजनीतिज्ञों” के छलावे में आकर अपनी पहचान खो रहे हैं और अपनी पहचान, अपनी राष्ट्रीयता को खोकर हम ज्यादा दिनों तक नहीं रह सकते हैं.

इकबाल का वर्षों पुराना लिखा शेर आज के परिपेक्ष्य में भी उतना ही सार्थक है:
वतन की फिक्र कर नादाँ, मुसीबत आने वाली है,
तेरी बरबादियों के मशवरे हैं आसमानों में ।
नहीं समझोगे तो मिट जाओगे हिन्दुस्तां वालों,
तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में ॥


आज आवश्यकता है हम सभी भारतीयों (वो सभी लोग जो इस पवित्र भूमि को भारत-माता मानते हैं) को एक साथ खड़े होकर इन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिज्ञों को सबक सीखाने की, अपनी खोती जा रही राष्ट्रीयता को पुनः प्रतिष्ठित करने की, अपने इस भारत-माता को पुनः परम-वैभव पर पंहुचाने की और भारतवर्ष को फिर से विश्व-गुरु के रूप में स्थापित करने की. आइए, हम सभी भारत माँ के संतान यह प्रण लें:
तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें ना रहें ॥

!! भारत माता की जय !!

Sunday, November 9, 2008

A Great Family

Driven by the philosophy that peace of mind need not necessarily come by visiting centers of pilgrimage but by extending a helping hand to the deprived, a 71 year old man here has built 148 houses for poor mobilising funds from his own resources.

K. N. Gopalakrishna Bhat, popularly known as Sairam Bhat, has become a role model for others by resolving to generously allocate a major portion of his family’s income to build decent accommodation for those who find it extremely hard to build one on their own.


The roof-tiled houses, with one hall, bedroom and kitchen each costing roughly Rs.50000/- are built with resources generated solely from Bhat’s family for the deserving poor from various castes and religions.


Hailing from a traditionally agriculture family, based at Sithangoli near Badiyaduka in the northern most district, Bhat, who was getting ready to visit the pilgrim center of Varanasi way back in 1995, dropped his plans once and for all after an impoverished labourer from a nearby locality sought his help to construct a house.


In his words, “If I could fulfil the dream of the hopeless labourer, I might be more at peace and closer to God. I resolved to use the money mobilised for the pilgrimage and managed to mop up an additional sum to build the first house for the labourer. That was a turning point in my life. I later resolved to allocate a major portion of my family’s income earned out of intense farming, ayurveda practice, performing poojas, with the objective of providing accommodation, drinking water, medicine, perceived as basic human necessities for a healthy living.”


And the saga continues as the warm-hearted man, with the close supervision of his son Krishna Bhat, a cultivator, also focuses on ensuring drinking water facilities to the house premises dotted in the nearby four to five panchayat limits and to set up free medical camp, both allopathic and ayurvedic and free supply of medicines on Saturdays.


He says, “Around 300 to 400 patients visit the medical camp from 06.30 AM to 01.00 PM every Saturday, where both allopathic and ayurvedic doctors are pressed into service, while medicines purchased on bulk and those received as physicians samples are distributed among the needy patients.”


The money for undertaking his pet projects comes from his family owned farm, where rubber, coconuts, arecanut, cashew and cocoa are cultivated using intense farm techniques, he said, adding that the income received by way of performing poojas are also used for meeting the mounting expenses.


Young Venugopal, an Engineer in a Bangalore-based firm, is also toeing the lines of his grand-father by sending a major portion of his savings home to help his family meet expenses for its social obligation, Bhat said, while decrying the general tendency to mobilise wealth rather than use them for some welfare oriented programmes to benefit society at large. All of us must learn something from this family.


Really, A Great Family.



!! भारत माता की जय !!



Source: Outlook


आरक्षण पर प्रधानमंत्री के नाम खुला पत्र

आदरणीय प्रधानमंत्री जी, यह तो हम सबको बहुत अच्छे से पता है कि तुष्टिकरण विशुद्ध रूप से एक राजनैतिक उपकरण है। जहाँ भी तुष्टिकरण है, वहाँ वास्...